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तो क्या सच में लाइलाज है कोविड-19

वरिष्ठ पत्रकार एवं सभ्यता अध्ययन केन्द्र के निदेशक हैं रवि शंकर। कोविड-19 से जुड़े तमाम पक्षों को उन्होंने चार आलेखोंं में समेटा है। प्रस्तुत है दूसरा लेख …

नई दिल्ली/ एसबीएम

कोविड-19 को लेकर सबसे बड़ा मिथक है लाइलाज होने का मिथक। इसको समझना बहुत जरूरी है। इसके बारे में सबसे पहला मिथक यह है कि यह लाइलाज बीमारी है। यदि किसी को हो गई तो हो गई, अब वह मरेगा ही। इस रोग का कोई इलाज नहीं हैं। परंतु वहीं दूसरी ओर हम यह भी सुनते हैं कि इतने कोरोना रोगी ठीक हो गए। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या यह रोग बिना इलाज के ही ठीक भी हो जाता है? यदि हाँ तो फिर चिंता और घबराने की बात क्या है, और यदि नहीं, तो लोग ठीक कैसे हो रहे हैं? यदि लोग ठीक हो रहे हैं तो इसे लाइलाज क्यों बताया जा रहा है? इसका एक बड़ा कारण है आधुनिक चिकित्सा प्रणाली।
आधुनिक चिकित्सा प्रणाली जो कि वस्तुतः यूरोपीय चिकित्सा प्रणाली कही जानी चाहिए, प्रयोगशाला पर आधारित है, मनुष्यों पर नहीं। इसे समझना हो तो आप कोरोना का ही उदाहरण ले लीजिए। वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस को प्रयोगशाला में चिह्नित किया और प्रयोगशाला में ऐसे रसायन की खोज करने लगे, जिसे वे उस वायरस पर डालें और वायरस नष्ट हो जाए। उन्हें ऐसा कोई भी रसायन नहीं मिला। यदि उन्हें मिल जाता तो वे उस रसायन को दवा के रूप में प्रस्तुत कर देते। अब चूँकि ऐसा कोई रसायन उपलब्ध नहीं है जो इस वायरस को नष्ट कर सके तो यह रोग उनके लिए लाइलाज हो गया।

रवि शंकर जी की इस सीरीज का पहला  आलेख यहां क्लिक कर के पढ़ें…

प्रश्न उठता है कि यदि कोई रसायन उस वायरस को नहीं नष्ट कर पाता है तो क्या उसके कारण होने वाली बीमारी लाइलाज हो गई? उत्तर है नहीं। क्योंकि बीमारी का इलाज करने का अर्थ वायरस को नष्ट करना नहीं, मानव शरीर को स्वस्थ रखना मात्र होता है। यदि मानव शरीर स्वस्थ है तो वायरस स्वयं नष्ट हो जाएगा। स्वास्थ्य की रक्षा के इस सूत्र पर ही आयुर्वेद, होम्योपैथ आदि अन्यान्य सभी पद्धतियां काम करती हैं। वे वायरस से लड़ने में ऊर्जा नहीं लगातीं। वे शरीर को स्वस्थ रखने में ऊर्जा लगाती हैं। तो आयुर्वेद कहता है कि शरीर बीमार होता है, जब शरीर का वातावरण बिगड़ता है। वात, पित्त और कफ का संतुलन बिगड़ता है। इस संतुलन को ठीक करने के लिए आयुर्वेद विभिन्न प्रकार के उपाय बताता है। परंतु उसके इन उपायों को आज के यूरोपीय विज्ञान के जानकार स्वीकार नहीं करते।

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उदाहरण के लिए यदि आयुर्वेद कहे कि महासुदर्शन चूर्ण मलेरिया को ठीक करता है तो आज के विज्ञानी अपनी प्रयोगशाला में महासुदर्शन चूर्ण को मलेरिया के कारणभूत बैक्टीरिया पर डाल कर देखेंगे कि क्या इससे वह बैक्टीरिया मरता है। यदि हाँ तो वे मानेंगे, यदि नहीं तो वे इसे अवैज्ञानिक कह देंगे। परंतु सच यह है कि मलेरिया का रोगी महासुदर्शन चूर्ण से बिल्कुल ठीक होता है। असंख्य रोगियों पर यह सफलतापूर्वक प्रयोग किया जाता है। तो चाहे महासुदर्शन चूर्ण से प्रयोगशाला में मलेरिया का बैक्टीरिया मरता हो या नहीं, परंतु उससे मलेरिया के रोगी निश्चित रूप से ठीक होते हैं। ठीक इसी प्रकार मियादी बुखार यानी टॉयफॉयड की भी बात है। कोरोना के मामले में भी यही हो रहा है।

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इस प्रकार देखा जाए तो आयुर्वेद जहाँ सीधे-सीधे रोगियों पर औषधि का प्रयोग करके देखता है और परिणाम देता है, आधुनिक यूरोपीय चिकित्सा विज्ञान प्रयोगशाला में वायरस और बैक्टीरिया को नष्ट करने में ही ऊर्जा लगाता है। इसलिए केवल कोरोना ही नहीं, इस तरह के अनेक रोग, सार्स, मर्स, कैंसर, एड्स आदि इनके लिए लाइलाज ही हैं। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान तो पथरी जैसे साधारण रोग को भी दवाओं से ठीक करने में सक्षम नहीं है। किडनी के रोगों में उसने अपनी असफलता को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है। पिछले वर्ष उन्होंने अंततः स्वीकार किया कि किडनी के रोगों के इलाज के लिए आयुर्वेद ही एकमात्र उपाय है। यह बात दृढ़ता के साथ कही जा सकती है कि कोरोना आदि सभी रोगों का सटीक इलाज केवल आयुर्वेद के पास है। नौएडा के एक सरकारी आयुर्वेदिक अस्पताल ने इसे सफलतापूर्वक करके भी दिखाया है। केवल गरम पानी और भोजन में परिवर्तन से उन्होंने कई कोरोना रोगियों को ठीक करके दिखाया है।

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