कोरोना काल में हम जितने भी कोरोना योद्धाओं की चर्चा कर रहे हैं, उसमें हम कहीं न कहीं अपने गुरुओं पर कम ध्यान दे रहे हैं। गुरुओं की मेहनत को रेखांकित कर रही हैं डॉ .अन्नपूर्णा बाजपेयी
एसबीएम/मन की बात
कोरोना काल के लॉकडाउन में शिक्षक विद्यालय के छात्र-छात्राओं को बखूबी पढ़ा रहे हैं। इस विपदा में जिस तन्मयता के साथ बच्चों को शिक्षा देकर उन्हें संस्कारवान, ज्ञानवान बना रहे हैं, उनके पिछड़ते हुये कोर्स को पूरा कर रहे हैं जिसके लिए वे रातों को जागकर अपना पाठयक्रम तैयार करते हैं, जिसे उन्हे सुबह बच्चों को बताना होता है। विद्यालय में बच्चों को जो कुछ वह बोर्ड पर लिख कर समझाते थे वह अब पी.पी.टी बना कर समझाना होता है। जिसके लिए उन्हें बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है। खासकर महिला अध्यापिकाएं जो घर को, अपने खुद के बच्चों व परिवारों को देखते संभालते हुए इन कार्यों को अंजाम दे रही हैं वह सचमुच सराहनीय है। इस कार्य के लिए इनकी जितनी भी सराहना की जाए कम है। किन्तु इसके बदले इन्हे क्या मिल रहा है? इन्हे जो सम्मान मिलना चाहिए वह भी नहीं मिल रहा है। जबकि देखा जाए तो जितने भी करोना योद्धा हैं चाहे वो डॉक्टर हो, उच्चाधिकारी हो, विधायक हो, सिपाही हो या बार्डर पर लड़ता व शहीद होता सैनिक हो या कोई भी छोटा बड़ा व्यक्ति जिसने भी शिक्षा प्राप्त किया है; केवल उनको छोड़कर कर जो आज तक नहीं पढ़े हैं कहीं न कहीं अपने कर्मों के कारण! और ठीकरा फोड़ा परिस्थितियों पर।
मैं इस बात को बिलकुल नहीं मानती कि यदि कोई व्यक्ति अच्छी लगन से कोशिश करे और वो कामयाब न हो ऐसा हो नहीं सकता! तो मैं लौटती हूँ अपनी बात पर कि जो भी इन आसनों पर आज विराजमान हैं उन सबके पीछे कहीं न कहीं अध्यापक की मेहनत, उसकी लगन, निष्ठा सब कुछ जुड़ा हुआ है। उनको इस स्तर तक लाने में उनकी मेहनत को नकारा नहीं जा सकता।
वैदिक काल में गुरु की महिमा इतनी अधिक थी कि राजा भी अपने गुरु से पूछे बिना कोई कार्य निष्पादित नहीं करता था, जैसे ही गुरु राज दरबार में आता था राजा अपने स्थान को छोड़कर उठ खड़ा होता था पहले गुरु अपना स्थान ग्रहण कर लेता था तब राजा और अन्य दरबारी बैठते थे। अब यदि गुरु अपने ऐसे शिष्यों से मिलता है जो आज उच्च अधिकारी हो गया है तो उसे जनता दरबार में पीछे खड़ा होना पड़ता है। कभी-कभी तो वह अधिकारी उनसे मिलता भी नहीं। सब समय का फेर है।
इस महामारी के काल में जब लोग घरों में कैद हो गए बच्चे घरों में कैद हो गए उनको संभालना कठिन काम हो जाता है। जहां एक माँ अपनी दो संतानों को ठीक से संभाल नहीं पाती वहीं पर अध्यापक खासकर अध्यापिकाएं अपने घर, अपने बच्चे, सब कुछ संभालते हुये इस कार्य को करने के लिए आगे आयीं और भली भांति अपने दायित्वों का निर्वहन कर भी रही हैं। इस बात की परवाह किए बिना कि लॉकडाउन के बाद उनकी नौकरी रहेगी या जाएगी उन्हे पेमेंट मिलेगी या नहीं। यदि मिली भी तो कितनी? इस सब समस्याओं को नजर अंदाज करते हुये वे अपने दायित्व का निर्वहन करने में मनोयोग से जुटे हुए हैं। इस बाबत हमने अध्यापन क्षेत्र से जुड़ी कुछ विशिष्ट हस्तियों से बात की।
लखनऊ विश्वविद्यालय के सांख्ययिकी विभागाध्यक्ष डॉ. शीला मिश्रा जी जो कि स्वयं ऑन लाइन कक्षाएं ले रही हैं, अनेक वेबिनार के माध्यम से कोरोना वोलेंटियर्स भी तैयार कर रही हैं, घर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भी भलीभांति निर्वहन कर रही हैं। उन्होंने कहा कि, ‘हमें इसको एक अवसर के रूप में भी देखना चाहिए। ये महामारी निश्चित रूप से बहुत बड़ी है, भयावह है किन्तु हमें इसके लिए बिना घबराए हुए खुद को तैयार करना है। आज हम लॉकडाउन में हैं घरों में कैद हैं इसको लेकर परेशान होने के बजाय हम इसे एक अवसर के रूप में देखें और अपनी अनेक ऐसी अभिरुचियाँ जिन्हें हम आज तक पूरा करने के बारे में सोच नहीं पाते थे, क्योंकि हमारे पास समय नहीं होता था उन सभी शौक को, अभिरुचियों को पूरा करें। प्रकृति के परिवर्तन को अपनी गलती का परिणाम मान कर स्वीकारें। इस दौर को डिजिटल युग की तरह भी देखा जा रहा है। निश्चित ही यह हमें अच्छे और नवीन भारत की ओर ले जाएगा।”
जुहारी देवी इंटर कालेज कानपुर की सेवा निवृत्त प्राचार्या से कोरोना काल में शिक्षा के हालातों पर जब हमने उनसे पूछा तो उन्होने कहा कि – इस कोरोना से हमारे छात्रों और अभिभावकों पर क्या प्रभाव पड़ा इसकी ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी। इस दौर में तरह-तरह के विषय प्रवर्तक रहे हैं और उन्होंने कई तरह का विषय प्रवर्तन भी किया है किसी ने अच्छा कहा किसी ने गलत! ऑन लाइन शिक्षा देना सचमुच चुनौती भरा कार्य है। छोटे – छोटे बच्चे जो अक्षरों से भी पूरी तरह वाकिफ नहीं थे उन्होंने भी मोबाइल खोल कर पढ़ना शुरू किया इसमें हमारे छात्र और छात्राएं तो प्रशंसनीय कार्य कर ही रहे हैं, साथ ही साथ हमारे शिक्षक भी सराहना के पात्र हैं तथा उन्हें जितनी सराहना मिलनी चाहिए, समाज में उतनी सराहना नहीं मिल रही, बल्कि अभिवभावक फीस न देने कि बात कह कर उन शिक्षकों का दिल दुखा रहे हैं। क्या वे अपने छात्र छात्राओं को बिना परिश्रम के पढ़ा रहे है अथवा उनके परिश्रम का कोई मूल्य नहीं। देखिये एक तो कोरोना के कारण हम सब घर पर हैं उस पर यदि स्कूल न हो , पढ़ाई न हो तो सचमुच बच्चे निठल्ले, कामचोर और आलसी हो जाएंगे, पढ़ाई लिखाई सारा भूल जाएंगे और कहीं न कहीं बुरी आदतों की ओर बढ़ जाएंगे इस वजह से उनकी पढ़ाई अति आवश्यक है। इस पर हमारी सरकार ने ध्यान दिया, हमारे विद्यालयों ने ध्यान दिया, हमारे शिक्षकों ने उन्हे पढ़ाया और पढ़ा रहे है, सही मायनों में इस महामारी के काल में अपने दिन का एक- एक पल उन छात्र-छात्राओं के लिए समर्पित कर रहे हैं जो विद्यालयों में एक सीमित अवधि के लिए होता था। बच्चों को बोर्ड पर पढ़ाना या समझाना एक अलग बात है और मोबाइल पर पढ़ाना थोड़ा कठिन कार्य है उनके इस कार्य की सराहना न हो कोई बात नहीं लेकिन बुरा भला कहना बहुत गलत है। मैं अपने समाज के भाई बहनों से अनुरोध करुंगी कि इस विकट काल में शिक्षक शिक्षिकाओं का सम्मान उनके कार्यों की सराहना करके किया जाना चाहिए।
ऐसे ही अनेक शिक्षकों, शिक्षिकाओं व बच्चों के साथ परिचर्चा में हमने पाया कि सभी कहीं न कहीं इस परिवर्तन से खुश भी हैं कि इतनी भयंकर गर्मी में घर से बाहर नहीं जाना पड़ रहा। रोज समय पर भागने की टेंशन नहीं। पेट्रोल का खर्च कम हो गया, सड़कों पर वाहनों का दबाव कम हो गया। प्रदूषण कम हो गया। बच्चे खुश हैं कि उन्हें धूप में स्कूल नहीं जाना पड़ रहा, सुबह नींद खराब होने का झंझट खतम। मम्मी पापा बिना कुछ कहे सुबह नौ बजे मोबाइल उनके हाथ में थमा देते है। मोबाइल से पढ़ना या ऑन लाइन क्लासेस बच्चों को तो खूब लुभा रही हैं। कुछ माताएँ खुश हैं कि चलो अच्छा है बच्चे घर पर ही रह कर पढ़ रहे है न उन्हें स्कूल छोड़ने जाने का झंझट न लाने का। धूप से बच्चे भी बेहाल नहीं होते।
किन्तु इसके परिणाम के विषय में सोचें तो मोबाइल, लैपटॉप या टैबलेट इत्यादि गैजेट्स का अधिक इस्तेमाल का दुष्परिणाम बच्चों की आँखों, दिमाग और शरीर के अन्य भागों पर पड़ सकता है। जो भी हो मैं भी इसको सराहनीय प्रयास मानती हूँ जो बच्चों के हित के लिए किया गया है। रही बात उसके गलत परिणाम की तो समय सीमा निर्धारित करके ही गैजेट्स बच्चों को दिये जाएं ताकि इनके दुष्परिणामों से बचा जा सके। बच्चों के पास भी बहुत बहाने होते है मम्मी पापा को बेवकूफ बनाने के लिए, तो इन पर भी ध्यान देते हुये कुछ सख्ती का रुख अपनाते हुये, कुछ प्यार से दुलार से बच्चों को उनके भले के लिए समझाते रहें।
विद्यालय खुलने की स्थिति के बाबत जब हमने उनसे बात की तो लोगों ने बताया कि मास्क पहना एवं सामाजिक दूरी का ध्यान रखना बेहद जरूरी हो गया है। उन्होंने कहा कि कोराना को हराने के लिए हमें लॉकडाउन समाप्त होने पर शारीरिक दूरी को हर हाल में पालन करना होगा जिसके लिए हमने कुछ और कमरे बना लिए हैं ताकि हम बच्चों से शारीरिक दूरी का नियम फॉलो करवा सकें। उनके खेल के बारे में पूछने पर बताया कि अभी वे मध्यान्तर के समय बच्चों को कक्षाओं में टीचर्स कि निगरानी में रखेंगे। छुट्टी के समय भी दूरी को ध्यान में रखा जाएगा। फिलहाल इन नियमों का पालन विद्यालय खुलने के बाद सख्ती से किया जाएगा तभी हम कोरोना के इस जंग में जीत पाएंगे।
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