पिछले दिनों बस भेजने न भेजने को लेकर प्रियंका गांधी और योगी सरकार आमने-सामने थी। इस राजनीति को श्रमिकों को नुकसान पहुंचाने वाला बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार आदर्श प्रकाश सिंह
एसबीएम/ मन की बात
उत्तर प्रदेश में प्रवासी श्रमिकों को उनके गांव घर तक पहुंचाने के लिए योगी सरकार सारे जतन कर रही है। कोरोना संक्रमण के चलते लॉकडाउन के दौरान सबसे ज्यादा पीड़ित ये मजदूर ही हैं। इनके सामने एक तरफ कुआं है तो दूसरी तरफ खाई। टीवी पर या अखबारों में इन श्रमिकों की व्यथा देख कर किसी का भी मन द्रवित हो जाएगा। कोई हैदराबाद से बाइक से चल कर गोरखपुर जा रहा है तो कोई मुंबई से पैदल चल पड़ा है।
इनका दर्द कम करने के लिए कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा ने एक हजार बसों की व्यवस्था करने का प्रस्ताव यूपी सरकार के सामने रखा। बात आगे बढ़ी लेकिन सियासत की भेंट चढ़ गई। यूपी सरकार ने इतने किन्तु-परन्तु लगा दिए कि प्रियंका की योजना परवान नहीं चढ़ सकी। यदि यह मान लें कि कांग्रेस ने वाहनों के जो नंबर यूपी सरकार को दिए उनमें कई फर्जी थे तो भी जो बसें वैध थीं उन्हें चलाने की इजाजत क्यों नहीं दी गई। राजस्थान से बसें आकर यूपी सीमा पर खड़ी थीं लेकिन योगी सरकार ने अनुमति नहीं दी। सीएम योगी आदित्यनाथ की कर्तव्यपरायणता में किसी को संदेह नहीं है। वह इस संकट काल में एक संन्यासी की तरह जनता की सेवा कर रहे हैं। मगर उन्होंने इस मामले में दरियादिली दिखाई होती तो उनका सम्मान और बढ़ जाता। कांग्रेस के पास फिर कुछ बोलने को रहता ही नहीं। मजदूरों की सेवा में राजनीति का तड़का लगाना उचित नहीं।
उधर कोटा से छात्रों को यूपी सीमा तक भेजने के लिए राजस्थान सरकार ने बसों का 36 लाख से अधिक का जो बिल यूपी सरकार को भेजा है उससे दोनों राज्यों में कड़वाहट बढ़ गई है। जन कल्याण का दंभ भरने वाली सरकारें यदि मेरा-तेरा करेंगी तो जन सेवा का भाव कहां रह जाएगा ? प्रश्न विचारणीय है।
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